गांव की गौशाला के सन्दर्भ में यह लेख सही मायनों में एक विचारनीय एवं उत्तम लेख है | एक बार जरूर पढ़े |
ज्यादातर गोशालाओं में गोबर का कोई खास उपयोग नहीं होता। कई गोशालाओं में गोबर पानी में बहा दिया जाता है या सामान्यतः खेतो में खाद के रूप में काम में लिया जाता है, जबकि गोबर बायो-गैस, उपले व अन्य उत्पाद बनाकर गौशाला के लिए पर्याप्त आय की जा सकती है। अब पिछले कुछ वर्षों से गाय के गोबर से लकड़ी बनाई जा रही है, जिसे गोकाष्ठ कहते हैं। जिसका उपयोग शवों के अंतिम संस्कार, सर्दियों में सिकाव व होलिका दहन में भी किया जाने लगा है।
Go Cast Machine (Cow Dung Log Making Machine)
यदि एक शव के अंतिम संस्कार में लकड़ी के स्थान पर गोकाष्ठ का उपयोग किया जाता है तो 10-12 वर्ष की आयु के दो बड़े पेड़ कटने से बच जाते हैं। एक शव के संस्कार में उपयोग लाए गए गोकाष्ठ के मूल्य से लगभग 30 गायों के लिए एक बार के चारे की व्यवस्था हो सकती है। एक सर्वे के अनुसार भारत में एक तिहाई लकड़ी का उपयोग शवों के अंतिम संस्कार हेतु किया जाता है। एक अनुमान के अनुसार इस कार्य में प्रतिवर्ष 5 करोड़ पेड़ों को काटा जाता है। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वैज्ञानिक डॉ.योगेन्द्र कुमार सक्सेना के अनुसार गोकाष्ठ के प्रयोग से अकेले भोपाल शहर में ही पिछले 10/12 वर्षों में 24 हजार क्विंटल लकड़ी जलने से बचा ली गई। यह 18 हेक्टेयर जंगल की हरियाली के बराबर है। एक शव के संस्कार में लगभग 4 से 5 क्विंटल लकड़ी की आवश्यकता होती है, जबकि गोकाष्ठ अधिकतम 4 क्विंटल ही लगेगा।
गोकाष्ठ बनाने की विधि गोकाष्ठ एक मशीन की सहायता से बनाया जाता है। यह मशीन देखने में आटा-चक्की की तरह होती है। मशीन के ऊपर से अनाज की तरह गोबर भरना होता है। कम्प्रेसर से यह गोबर सघन लकड़ी के चौकोर या गोल आकार के टुकड़ों में बदल कर बाहर आता है। ये टुकड़े गीले होते हैं, जिन्हें सुखाने में 6-7 दिन लगते हैं।
राजस्थान में गोकाष्ठ बनाने की पहली मशीन जयपुर के नजदीक बगरू में रामदेव गोशाला की अवानिया स्थित ब्रांच श्रीनारायण धाम गोशाला में लगभग 4.5 वर्ष पूर्व लगाई गई थी। गोशाला के प्रबंधक ओमप्रकाश जाट ने बताया कि वर्तमान में दो मशीन गोकाष्ठ बनाने हेतु लगाई हुई हैं, जिनसे प्रतिदिन 2.5 हजार किलो गोकाष्ठ बनाया जा रहा है। गोकाष्ठ सामान्यता 10-12 रुपये प्रति किलो में बेचा जाता है। उनका कहना था कि अभी भी समाज में जागरूकता की कमी के कारण गोकाष्ठ का उपयोग करने में लोगों को संकोच होता है।
मशीन के माध्यम से 50 किलो गोबर से 12 किलो गोकाष्ठ तैयार होती है। एक गाय से 24 घंटों में 8 से 9 किलो गोबर मिलता है। एक मशीन एक घंटे में 24 किलो गोकाष्ठ बना देती है, जिसके लिए 100 किलो गोबर चाहिए, इस हेतु 10-12 गायों की आवश्यकता होगी। यदि मशीन को 8 घंटे चलाया जाए तो 80 से 100 गायों का गोबर चाहिए। 25-26 क्विंटल गोकाष्ठ तैयार करने पर मजदूरी का खर्च लगभग 3 हजार रुपये आता है। यदि गोकाष्ठ का मूल्य 5 रु.किलो माना जाए तो इससे लगभग 12 हजार रुपये की आय होगी। भोपाल की महामृत्युंजय गोशाला समिति के पास 70 गायें हैं। वे 6-7 क्विंटल गोकाष्ठ हर दिन तैयार करते हैं। इस हिसाब से लगभग 5 हजार रुपये प्रतिदिन की आय इन गायों से हो रही है। इस कार्य में 5 लोगों को रोजगार भी प्राप्त हुआ है। मशीन की लागत 50 हजार या कुछ ज्यादा होती है। गोशालाओं में समाजसेवी व्यक्तियों या ट्रस्ट से ऐसी मशीनें दान रूप में प्राप्त की जा सकती हैं।
बांसवाड़ा में दो वर्ष पूर्व से शवदाह हेतु गोकाष्ठ व कंडे उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इसकी शुरुआत तब हुई जब लेखराज सराफ फाउंडेशन की ओर से मदारेश्वर गोशाला में एक मशीन लगाई गई। ऐसी ही एक मशीन राजस्थान के हनुमानगढ़ टाउन में जनवरी माह में श्री नन्दी गोशाला कल्याण भूमि में लगाई गई है। गोशाला, समिति के अध्यक्ष मनोहर लाल बंसल का कहना है कि मशीन से प्रतिदिन 3 क्विंटल गोकाष्ठ तैयार होगी, जिसके कारण प्रतिवर्ष 1 से 2 हजार क्विंटल लकड़ी की बचत होगी।
होलिका दहन में गोकाष्ठ
देश के कई स्थानों पर होलिका-दहन में भी गोकाष्ठ का प्रयोग प्रारम्भ हो गया है। होलिका दहन में लकड़ी का कम से कम प्रयोग करते हुए, ज्यादा प्रयोग गोकाष्ठ एवं कंडों का किया जाता है। मप्र के इंदौर के साथ ही राजस्थान का भीलवाड़ा शहर इसका बड़ा उदाहरण है।
सर्दी में ताप के लिए सर्दी के मौसम में तापने के लिए प्रयोग में आने वाली लकड़ी के विकल्प के रूप में गोकाष्ठ का कई स्थानों पर उपयोग प्रारम्भ हुआ है। छत्तीसगढ़ के शहर रायपुर के नगर निगम ने शहर को ठंड से बचाने के लिए गोकाष्ठ व कंडों का प्रयोग करने हेतु सभी जोन कमिश्नरों को इसकी खरीद करने को कहा था। वहां पर गोधन न्याय योजना के अंतर्गत महिला समूहों द्वारा गोकाष्ठ बनाने का कार्य कर आर्थिक स्वावलंबन की ओर कदम बढ़ाया गया है। गोकाष्ठ के निर्माण एवं उपयोग के परिणामस्वरूप सड़कों पर छोड़ दी गई बूढ़ी, बीमार एवं दूध न देने वाली गायों की सार-संभाल प्रारम्भ हो गयी है। अब वे कई शहरों-कस्बों की सड़कों पर दिखाई नहीं दे रही हैं। इनके गोबर से बनी ‘गोकाष्ठ’ आय का साधन हो गयी है। स्थानीय लोगों को रोजगार मिल रहा है।
घर की दीवार-आंगन की पुताई
गांवों में मकानों की दीवारों और आंगन को गाय के गोबर में मिट्टी मिलाकर लीपा-पोता जाता रहा है। यह गोबर जहाँ दीवारों को मजबूत बनाता है वहीं घरों पर परजीवियों, मच्छर और कीटाणुओं के हमले को भी रोकता है।
बायोगैस
गोबर से चलने वाले एक बायोगैस प्लांट से लगभग 7 करोड़ टन लकड़ी बचाई जा सकती है, जिससे लगभग 3 करोड़ पेड़ कटने से बचेंगे। लगभग 3 करोड़ टन कार्बनडाई ऑक्साइड को भी रोका जा सकता है।
बायो गैस संयत्र
सीएफएल बल्ब
कानपुर की गोशाला में एक ऐसा सीएफएल बल्ब बनाया गया है, जो बैटरी से चलता है। इस बैटरी को गौमूत्र से चार्ज किया जाता है। आधा लीटर गोमूत्र से एक सीएफएल बल्ब 24 घंटे जलता रहता है।
गोमूत्र से कीटनाशक व दवाईयाँ
जयपुर की दुर्गापुरा स्थित गोशाला सहित कई गोशालाओं में गोमूत्र, नीम की पत्तियों आदि से कीटनाशक तैयार किया जाता है। जिसका छिड़काव पेड़-पौधों को कीटाणुओं से बचाने हेतु किया जाता है। गोमूत्र से कई प्रकार की दवाईयाँ भी बनाई जा रही हैं जो अनेक रोगों का उपचार करने में सहायक सिद्ध हो रही हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से संचालित मथुरा के दीनदयाल धाम की योजना गोबर से बने ब्यूटी प्रोडक्ट्स ऑनलाइन बेचने की है। गोबर तथा गौमूत्र से साबुन, शैंपू, धूपबत्ती भी बनाए गए हैं। संघ से जुड़े मुम्बई के केशव-सृष्टि ने भी ऐसे उत्पादों का निर्माण किया है।
गोबर से गमले व अगरबत्ती
गोबर में लाख के प्रयोग से गमला, लक्ष्मी-गणेश, कमलदान, कूड़ादान, मच्छर भगाने वाली अगरबत्ती, मोमबत्ती स्टैण्ड आदि सामान बनाए जाने लगे हैं। प्रयागराज जिले के कौडिहार ब्लाक के श्रींगवेपुर स्थित बायोवेद कृषि प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान शोध संस्थान में गोबर से बने उत्पादों को बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है। संस्थान के प्रबन्ध निदेशक डॉ.हिमांशु द्विवेदी बताते हैं कि गोबर से बनाया गमला लोकप्रिय हो रहा है। गोबर से गमला बनाने के बाद उस पर लाख की कोटिंग की जाती है।
राजस्थान के केशवपुरा आदर्श ग्राम में भी गोवंश के गोबर से विभिन्न प्रकार के सामान तैयार किए गए हैं। गत दीपावली पर वहां गोबर से दीए, स्वस्तिक आदि बनाये गए थे। केशवपुरा ग्राम के संजय छाबड़ा का कहना है,“ हम गोबर व गोमूत्र के उत्पादों का बड़े पैमाने पर उत्पादन कर गोशालाओं को आत्मनिर्भर बना सकते हैं।”
गोबर से पेंट का निर्माण
कुछ समय पूर्व केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने गोबर से बना हुआ दीवारों पर लगाने वाला पेंट लॉन्च (शुभारम्भ) किया था। खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग के अधिकारियों के अनुसार केवल एक गाय के गोबर से किसान हर वर्ष 30 हजार रुपये कमा सकता है। गडकरी की योजना सफल हुई तो गांवों में रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। अभी पेंट बनाने हेतु प्रशिक्षण देने की व्यवस्था जयपुर में है। पिछले दिनों समाचार-पत्रों में विज्ञापन द्वा��ा ‘गोबर से पेंट निर्माण’ हेतु प्रशिक्षण के लिए आवेदन भी मांगे गए थे। गडकरी के अनुसार इतने आवेदन आ गए हैं कि सबको प्रशिक्षण देना संभव नहीं हो रहा है। गोबर पेंट पर्यावरण-हितैषी, फफूंदरोधी व जीवाणुरोधी गुणों वाला तथा गंधहीन है। खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग की जयपुर स्थित इकाई कुमारप्पा नेशनल हैंडमेड पेपर इंस्टीट्यूट ने यह अनोखा पेंट निर्मित किया है।कहा जा सकता है कि गो व गोवंश को पालना भार न होकर आर्थिक समृद्धि का आधार हो सकता है। गो को माता का दर्जा यूं ही नहीं दिया गया। दूध न देने वाली गायें भी कैसे आर्थिक गतिविधियों को चलाने में सहायक हो सकती हैं, यह देखकर कई लोग आश्चर्यचकित हैं। इस दिशा में राज्य सरकारों सहित समाजसेवी ट्रस्टों एवं व्यक्तियों को आगे आने की आवश्यकता है।
गाय के कंडों से होलिका दहन
होलिका दहन में प्रत्येक परिवार द्वारा गोबर से बने बड़कुले डालने की परम्परा पुरानी है। लेकिन होलिका दहन में पेड़-पौधों की लकड़ी का उपयोग न करते हुए केवल गाय के गोबर के कंडों से ही होलिका दहन किया जाये इसके प्रयास पिछले 5 वर्षों से कई राज्यों में चल रहे हैं। राजस्थान के भीलवाड़ा में अपना संस्थान की प्रेरणा से पिछले तीन वर्षों से होलिका दहन में गोकाष्ठ व उपलों का प्रयोग किया जा रहा है। लोगों को जागरूक करने हेतु प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती है। इस प्रतियोगिता के अंतर्गत होलिका दहन में लकड़ी का प्रयोग पूर्णतः वर्जित रहता है। कंडे गोशाला से सीधे या गोसेवा विभाग के माध्यम से क्रय करने की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। यह कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गोसेवा विभाग द्वारा किया जा रहा है।
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